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________________ [भगवान महावीर रहता है तथा उससे किसी भी प्रकार पृथक नहीं होता। परन्तु भगवान का मन सवृत्त था और उन्हे पुद्गलों की सङ्गति तनिक भी प्रिय नही थी। अतएव उक्त क्रिया गीघ्रता से सिद्ध हो गयी। 'आचाराङ्गसूत्र' मे कहा है-वि भगवान् कषाय-रहित, लोभरहित, शब्द और रूप मे मूछारहित तथा साधक-दशा मे पराक्रम करते हुए स्वल्पमात्र भी प्रमाद नहीं करते थे। वे स्वानुभूतिपूर्वक ससार के स्वरूप को समझकर आत्मशुद्धि के कार्य मे सावधान रहते थे। भगवान् ने इतना योगाभ्यास कर लेने के पश्चात धारणा सिद्ध करने का प्रयास किया था और तदर्थ भद्रा, महाभद्रा एवं सर्वतोभद्रा नामक प्रतिमाएं अङ्गीकृत की थी। भद्राप्रतिमा की विधि इस प्रकार है कि दो दिन का निराहार उपवास ग्रहण करके प्रातःकाल मे पूर्वाभिमुख होकर किसी एक पदार्थ पर ही दृष्टि केन्द्रित करना। तदनन्तर रात्रि होने पर दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके उपर्युक्त रीति से ही किसी अन्य पदार्थ पर दृष्टि स्थिर करना। दूसरे दिन प्रातःकाल होने पर पश्चिम दिशा की ओर तथा सायं होने पर उत्तर दिशा की ओर मुंह रखकर ऊपर कहे अनुसार 'किसी भी वस्तु पर दृष्टि केन्द्रित करना। तात्पर्य यह है कि इसमे लगातार वारह घण्टे तक एक पदार्थ पर धारणा की जाती है तथा यह प्रयोग अड़तालीस घण्टों तक चालू रखना होता है। हम एक वस्तु पर अधिक से अधिक कितने समय तक दृष्टि स्थिर रख सकते हैं, इसका विचार करें तो इस धारणा का महत्त्व समझ मे आ
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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