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________________ भोग-साधना] [६३ सकता है। भगवान् ने यह प्रयोग लगभग दस वर्ष के योगाभ्यास के अनन्तर श्रावस्ती नगरी की एक ओर बसे हुए 'सानुयष्टिक' नामवाले गाव में किया था और इसमे सफलता प्राप्त की थी। __महाभद्र-प्रतिमा मे एक दिशा की ओर चौबीस घण्टे तक रहना 'पडता है तथा उतने ही समय तक किसी भी एक पदार्थ पर दृष्टि स्थिर की जाती है। छियानवे घण्टे के निराहार उपवासपूर्वक यह प्रतिमा पूर्ण होती है। भगवान् इस क्रिया में भी सफल सिद्ध हुए। सर्वतोभद्र-प्रतिमा की विधि तो अत्यन्त ही कठिन है। इसमे चार दिशाएं, चार विदिशाएं, ऊर्ध्वदिशा एव अधोदिशा-इस प्रकार कुल दस दिशाओ मे एक-एक अहोरात्र तक दृष्टि स्थिर रखनी पड़ती है और दसों दिन तक निराहार उपवास किये जाते हैं। भगवान् ने इसमे भी विजय प्राप्त की थी। __अप्रमत्त-भाव से रहना यह उनका मुख्य सिद्धान्त था, अतः वे प्रमाद नही आ जावे इस सम्बन्ध मे बडी सावधानी रखते थे। निद्रा को भी वे योग-साधना मे बाधक मानते थे, इसलिये निद्रा-सेवन नही करते थे। आचारागसूत्र में कहा है-'भगवान् किसी-किसी समय उत्कट आसनादि मे स्थिर रहते , किन्तु निद्रा की इच्छा से नही। कदाचित् निद्रा आने जैसा लगता तो ससारवर्धक प्रमाद मानकर उठ जाते और उसे दूर कर देते। आवश्यकतानुसार शीतकाल * श्री हेमचन्द्राचार्य ने 'त्रिषष्टिशलाका-पुरुष-चरित्र' में यह नाम दिया है।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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