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________________ योग-साधना] इससे विदित होता है कि भगवान् वीरासन, पद्मासन, उत्कटिकासन, गोदोहिकासन प्रभृति सरल आसनो को अधिक प्रिय मानते थे और उनमे दीर्घकाल तक स्थिर रहते थे। भगवान् अनेक बार कायोत्सर्गासन मे भी रहते थे। उस समय दोनो पांव सीधे खडे रख कर, आगे के भाग मे चार अंगुल जितना और पीछे के भाग मे कुछ थोडा अन्तर रखते थे तथा अपने दोनो हाथो को इक्षुदण्ड के समान सीधे लटकते हुए रखते थे। निर्ग्रन्थ मुनिगण भगवान के पदचिह्नो पर चलते हुए भिन्न-- भिन्न आसनो को सिद्ध करते थे, इसका प्रमाण बौद्धग्रन्थो मे भी मिलता है। भगवान् श्वास-निरोधरूप प्राणायाम की क्रिया को विशेष महत्व नही देते थे। वे ऐसा मानते थे कि प्राणवायु के निग्रह से कदर्थना-प्राप्त मन शीघ्र स्वस्थ नहीं होता। किन्तु वे भाव-प्राणायाम को अवश्य महत्त्व देते थे, जिसमे बहिरात्मभाव का रेचक, अन्तरात्मभाव का पूरक एव स्थिरता रूप कुम्भक, ये तीन प्रक्रियाएं मुख्य थी।* पाँचो इन्द्रियो के विषय से मन को खीच लेना और अपनी इच्छा हो वहाँ स्थापित करना, प्रत्याहार की क्रिया कहलाती है। साधारण मनुष्य के लिये यह क्रिया अत्यन्त कठिन है, क्योकि उसका मन बलगम पर मक्खी के चिपट जाने की तरह इन्द्रियोके विषयमे लिप्त 8 श्री हरिभद्रसूरिजी ने 'योगदृष्टि-समुच्चय' की चौथी दृष्टि में उक्त भाव-प्राणायाम का वर्णन किया है।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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