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________________ ४०२J [श्री महावीर-वचनामृत इन प्रकार शिक्षायुक्त सुव्रती जीव गृहस्थाश्रम मे रहता हुआ भी इस औदारिक शरीर को छोडकर यक्षलोक अर्थात देवलोक मे चला जाता है। गारं पि अ आवसे नरे, अणुपुन्वं पाणेहिं संजए । समता सम्वत्थ सन्वत्थ सुब्बते, देवाणं गच्छे स लोगयं ॥३२॥ स्० श्रुः १, अ० २, उ० ३, गा० १३] गृहस्य भी घर मे वसता हुआ अपनी शक्ति के अनुसार प्राणियों की दया पाले, सर्वत्र समता धारण करे, नित्य अर्हत-प्रवचन को सुने तो वह मृत्यु वाद देवलोक मे उत्पन्न होता है। कुसग्गमेत्ता इमे कामा, सलिरुद्धम्मि आउए । कस्स हे पुराकाउं, जोगक्षेमं न संविदे ॥३३॥ [उत्त० अ०७, गा० २४ ] ये काम-भोग कुश के अन्न भाग पर रहे हुए जलविन्दु के समान है और आयु अत्यन्त सक्षिप्त है। तो फिर किस हेतु को आगे रखकर तुम योगक्षेम को नही जानते ? विवेचन-अप्राप्त की प्राप्ति को योग और प्राप्त हुए का पालन करना क्षेम कहलाता है । इस सारे कथन का तात्पर्य यह है कि मनुष्य की समृद्धि और आयु वहुत ही स्वल्ल है। इस स्वल्ल समृद्धि बोर आयु मे उसे जो धर्म की प्राप्ति हुई है तथा उस धर्म से जो स्वर्ग
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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