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________________ 'परभव] [४०१ वेमायाहिं सिक्खाहिं, जे नरा गिहिसुव्वया । उवेन्ति माणुसं जोणिं, कम्मसच्चा हु पाणिणो ॥२८॥ [उत्त० भ० ७, गा० २०] जो मनुष्य विविध प्रकार की शिक्षा द्वारा गृहस्थ-जीवन मे भी सुव्रती है, वे मनुष्य-योनि को प्राप्त होते है । निश्चय ही कर्म सत्य है अर्थात् जैसे वे किये जाते है, वैसे ही फल देते हैं। जेसिं तु विउला सिक्खा, मूलं ते अइच्छिया । सीलवन्ता सविसेसा, अदीणा जन्ति देवयं ॥२६॥ [उत्त० अ० ७, गा० २१ ] जिन जीवो की शिक्षाएं अधिक विस्तृत हो गई हैं और जो सदाचारी, विशेष गुणों से युक्त और दीनता से रहित हैं, वे मूल धन का अतिक्रमण करते हुए देवलोक मे चले जाते हैं। अगारि सामाइयंगाई, सड़ी कारण फासए । पोसहं दुहओ पक्खं, एगरायं न हावए ॥३०॥ एवं सिक्खा समावन्ने, गिहिवासे वि सुन्वए । मुच्चई छविपवाओ, गच्छे जक्खसलोगयं ॥३१॥ [ उत्त० भ०५, गा० २३-२४ ] श्रद्धावान् गृहस्थ काया से सामायिक के अगो का सेवन करे, दोनों पक्षो मे पौषध करे, परन्तु एक रात्रि तो कभी भी हीन न करे, अर्थात् एक मास मे एक रात्रि भर तो संवररूप से धर्मजागरण अवश्य करे। २६
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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