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________________ । ३६८] [श्री महावीर-वचनामृत सताप करता है, जैसा कि अतिथि के लिए पोषा हुआ बकरा मरने के समय मे। तओ आउपरिक्खीणे, चुयादेहा विहिंसगा। आसुरियं दिसं वाला, गच्छन्ति अवसा तमं ॥१८॥ [उत्त० अ० ७, गा०१०] अनन्तर वे हिंसादि में प्रवृत्ति रखनेवाले अज्ञानी जीव आयु के क्षय होने से गरीर को छोड़ कर कर्मों के अधीन होते हुए अन्चकारयुक्त नरक दिशा-नरक गति को प्राप्त होते हैं। जहा कागिणिए हेडं, सहस्सं हारए नरो। अपत्थं अश्वगं भोच्चा, राया रज्जंतु हारए ॥१६॥ एवं माणुस्सगा कामा, देवकामाण अन्तिए । सहस्सगुणिया भुज्जो, आउंकामा य दिन्चिया ॥२०॥ अणेगवासानउया, जा सा पण्णवओ ठिई । जाणि जीयन्ति दुम्मेहा, ऊणे वाससयाउए ॥२१॥ [उत्त० अ०७, गा० ११ से १३] जैसे एक काकिणी* के लिए कोई अज्ञानी मनुष्य हजार (कार्पापण ) को खो देता है और कुपथ्यल्प आम्र के फल को खाकर राजा राज्य (प्राण) सो हो देता है उसी प्रकार अज्ञानी जीव थोड़े से विषयजन्य सुखों के निमित्त देवलोक के महान् सुख को खो देता है। काकिणी-१ कापांपण। - भारत का एक पुराना सिक्का ।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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