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________________ ३६४ ] [ श्री महावीरन्चचनामृत जो कोई पुरुष पाथेय-रहित किसी महान् मार्ग का अनुसरण करता है, वह मार्ग मे चलता हुआ क्षुधा और तृष्णा से पीडित हो कर दुःखी होता है । इसी प्रकार धर्म का आचरण किये बिना जो जीव परलोक मे जाता है, वह जाता हुआ ( वहाँ जा कर ) व्याधि ओर रोगादि से पीटित होने पर दुःखी होता है । ( यहाँ व्यावि से मानसिक कष्ट और रोग से शारीरिक पीड़ा का ग्रहण करना । ) जो कोई पुरुष पाथेययुक्त हो कर किसी महान् मार्ग का अनुसरण करता है, वह मार्ग मे क्षुधा और तृष्णा की वाधा से रहित होता हुआ सुखी होता है । इसी प्रकार जो जीव धर्म का संचय कर के परलोक को जाता है, वह वहाँ जा कर सुखी होता है और असातावेदनीय कर्म अल्प होने से विशेष वेदना को भी प्राप्त नही होता । इह जीवियं अणियमेत्ता, पत्रभट्ठा समाहिजोऐहि । ते कामभोगरसगिद्धा, उववज्जन्ति आमुरे काये ||६|| [ उत्त० अ० ८, गा० १४] जिन जीवों ने ( सावृ-वृत्ति को ग्रहण कर के भी ) अपने अमयमी जीवन को (बारह प्रकार के तप द्वारा ) वा मे नही किया, वे कामभोगों के रस मे मूच्छित होते हुए समावियोगों से सर्वथा भ्रष्ट होकर अमर कुमारों मे उत्पन्न होते हैं । जे केड़ वाला हह जीवियडी, पावा कम्माहं करेन्ति रुदा ।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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