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धारा : ३७:
मृत्यु माणुस्सं च अणिच्चं, वाहिजरामरणवेयणापउरं ॥१॥
[औप० सू० ३४] मनुष्य देह अनित्य (क्षगभंगुर ) है तथा व्यावि, जरा, मरण और वेदना से पूर्ण है। डहरा बुट्टा य पासह,
गन्भत्था वि चयन्ति माणवा । सेण जह वट्टयं हरे,
एवं आउखयम्मि तुट्टई ॥२॥
[स्० श्रु. १, भ० २, ठ० १, गा..] देखो-जगत् की ओर दृष्टिपात करो। बालक और वृद्ध सभो मृत्यु को प्राप्त होते हैं। कई मनुष्य के तो गर्भावस्था मे ही अवमान हो जाता है। जमे बाज पक्षो तितर पर मपटा लगा के उन महार फरता है, ठीक वमे हो आयुन्य का ना होने पर मृत्यु मनुष्य पर चोट लगाता है और उनका प्राण हरता है।