SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 410
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७४] [श्री महावीर-वचनामृत अब्भागभियम्मि वा दुहे, ___ अहवा उक्कमिए भवन्तिए। एगस्स गई य आगई, विदुमन्ता सरणं न मन्नई ॥१३॥ [सू० ध्रु० १, अ० २, उ० ३, गा० १७ ] दुःख आने से अकेला ही भोगना पड़ता है अथवा आयुष्य क्षीण होने से भवान्तर मे अकेला ही जाना-आना होता है। इसलिये विवेकी पुरुष स्वजन-सम्बन्धी वर्ग को शरण-रूप नही समझता है। चिचा दुपयं चउप्पयं च, खेत्तं गिहं धणधन्नं च सन्वं । सकम्मबीओ अवसो पयाइ, परं भवं संदरपावगं च ॥१४॥ [उत्त० अ० १३, गा० २४] यह जीव द्विपद, चतुप्पद, क्षेत्र, घर, धन-धान्य और सर्व वस्तु को छोड़ कर तथा दूसरे कर्म को साथ लेकर पराधीन अवस्था मे परलोक के प्रति प्रयाण करता है और वही कर्म के अनुसार अच्छी या वुरी गति को प्राप्त करता है। माया पिया एहसा भाया, भजा पुत्ता य ओरसा।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy