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________________ भावना ] नालं ते मम ताणाए, लुप्पंतस्स [ ३७ सकम्मुणा ॥ १५॥ [ उत्त० भ० ६, गा० ३] अपने कर्मों के अनुसार दुःख भोगने के समय माता, पिता, स्नुषा (पुत्र-वधू), भार्या तथा अपने अग से उत्पन्न हुआ पुत्र- ये सब मेरी रक्षा करने में समर्थ नही हो सकते । अर्थात् कर्मफल के भोग मे ये बिल्कुल हस्तक्षेप नही कर सकते । सव्वं जगं जइ तुहं, सव्वं वावि धणं भवे । सव्वं पि ते अपज्जत्तं, नेव ताणाय तं तव ॥ १६॥ [ उत्त० अ० १४, गा० ३६ ] यदि यह सारा जगत् तेरा हो जाय, सारे घनादि पदार्थ भी तेरे पास हो जायं, तो भी ये सर्व अपर्याप्त ही है । वे सर्व पदार्थ मरणादि कष्ट के समय तेरी किसी प्रकार की रक्षा करने में समर्थ नही हैं । य, गाइओ य परिग्गहं । चिच्च वित्तं च पुत्ते चिच्चा ण अंतगं सोयं निरवेक्खो परिव्वए ||१७|| " [ सू० ० १, अ० ६, गा० ७ ] विवेकी पुरुष धन, पुत्र, ज्ञातिजन, परिग्रह और आन्तरिक विषाद को छोड निरपेक्ष बने तथा सयमादि अनुष्ठान करे । बन्धप्प मुक्खो अज्झत्थेव ॥ १८ ॥ [ आ० भ०५, ३०२
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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