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[ श्री महावीर वचनामृत
यह शरीर अनित्य है, अपवित्र है, और अशुचि से इसकी उत्पत्ति है । एव यह शरीर दुःख और क्लेशो का भाजन है तथा इसमें जीव का निवास भी अगाश्वत है ।
गब्भाड़ मिज्जंति
बुयावुयाणा,
परा परे पंचसिहा कुमारा ।
जुवाणगा
मज्झिम - थेरगा य, पलीणा ||८||
चयंति ते आउक्लए
[ सू० ध्रु० १, अ० ७, ना० १० ] कितने जीव गर्भावस्था मे कितने जीव दूध पीते बच्चों की अवस्था में, तो कितनेक जीव पचगिख कुमारो की अवस्था मे मरण को प्राप्त होते हैं । फिर कितने युवा, प्रोढ ( अवेड़ ) और वृद्ध होकर मरते हैं । इस तरह आयुष्य-क्षय होने पर मनुष्य हरेक हालत मे अपना देह छोड देता है |
दाराणिय सुया चेव, मित्ता य तह बन्धवा | जीवन्तमणुजीवन्ति, मयं नाणुव्वयन्ति य ॥६॥
[ उत्त० भ० १८, गा= १४ ]
स्त्रियां, पुत्र, मित्र, और वान्चव सर्व जीनेवाले के साथ ही जीते हैं अर्थात् उसके उपार्जन किये हुए धन से अपना जीवन-निर्वाह करते हैं, किन्तु मरे हुए के साथ कोई भी नही जाता ।
तं एकगं
तुच्छसरीरगं से, चिईगयं दहिय उ पावगेणं ।