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भावना]
[३७१ नौका पार पहुंचती है, उसी तरह ऐसी आत्मा संसार के पार पहुंचती है और वहाँ उसके सर्व दुःखो का अन्त होता है।
से हु चक्खु मणुस्साणं, जे कंखाए य अंतए । अन्तेण खुरो वहई, चकं अन्तेण लोहई ।।४।। अन्ताणि धीरा सेवन्ति, तेण अन्तकरा इह ॥५॥
[सू० श्रु० १, अ० १५, गा० १४-१५ ] जो मनुष्य ( भावना-बल से ) भोगेच्छा का-वासना का अन्त करता है, वह अन्य मनुष्यो के लिए चक्षुरूप होता है, अर्थात् मार्गदृष्टा बनता है।
उस्तरा अपने अन्त भाग पर अर्थात् धार पर चलता है। गाड़ी का पहिया भी अपने अन्त भाग पर अर्थात् धार पर चलता है। वैसे ही महापुरुषों का जीवन अन्तिम सत्यों पर चलता है और ससार का अन्त करनेवाला होता है।
जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जन्तवो ॥६॥
[उत्त० भ० १६, गा० १५] जन्म दुःख है, जरा भी दुःख है, रोग और मृत्यु आदि भी दुःख है । अहो ! यह समस्त संसार दुःखमय है, जिसमे प्राणी वहुत क्लेश पा रहे हैं।
इमं सरीरं अणिच्चं, असुई असुइसंभवं , असासयावासमिणं, दुक्खकेसाण भायणं ॥७॥
[उत्त० अ० १६, गा० १२]