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________________ धारा . ३५: भावना तहिं तहिं सुयक्खाय, से य सच्चे सुआहिए । सया सच्चेण संपन्ने, मेत्तिं भृएहिं कप्पए ॥१॥ भूएहिं न विरुज्झेजा, एस धम्मे वुसीमओ। बुसिमं जगं परिन्नाय, अस्सिं जीवितभावणा ॥२॥ भावणाजोगसुद्धप्पा, जले णावा व आहिया । नावा च तीरसंपन्ना, सबदुक्खा तिउट्टा ॥३॥ [सू० श्रु. १, अ० १५, गा० ३ से ५] वोतराग महापुरुषों ने जो-जो भाव कहे हैं, वे वास्तव मे यथार्थ हैं। जिसका अन्तरात्मा मदा सत्य भावो से पूर्ण है, वह सर्व जीवो के प्रति मंत्री-भाव रखता है। किसी भी प्राणी के साथ वैर-विरोव नहीं करना, यह इन्द्रियों को वश करनेवाला सयमी पुरुष का धर्म है। ऐसा मयमो पुरुप जगत् का स्वरूप अच्छी तरह समझ ले और धर्म मे-धर्मवृद्धि के लिये जीवन का उत्कर्ष सावनेवाली सद्भावनाओ का सेवन करे। भावना-योग से शुद्ध हुई आत्मा जल पर नौका के समान ससार मे तैरती है। जिस तरह अनुकूल पवन का महारा मिलने से
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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