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________________ पढावश्यक ] [ ३६६ काल के अतिचारो की शुद्धि करता है । प्रायश्चित्त से शुद्ध बना हुआ जीव ऐसे निवृत्त हृदयवाला हो जाता है जैसा कि सिर से बोझा उतर जाने पर कोई भारवाहक । इस प्रकार निवृत्त हृदयवाला बनकर वह प्रशस्त ध्यान को प्राप्त करता हुआ सुखपूर्वक विचरण करता है । विवेचन - काया का उत्सर्ग करना अर्थात् देहभावना का त्याग करके आत्मनिरीक्षण अथवा आत्मचिन्तन मे लीन हो जाना । इसमे एक ही आसन पर मोनपूर्वक स्थिरता से रहा जाता है । पच्चक्खाणं भन्ते ! जीवे पच्चक्खाणेणं आसवदाराईं निरंभड़ । इच्छानिरोहं जणय । इच्छानिरोहं गए य णं जीवे सन्वदव्वे विणीयतहे सीइए विहरइ ) || ६ || किं जणयइ १ ( पच्चक्खाणेणं [ उत्त० अ० २६, गा० १३ ] प्रश्न - हे भगवन् ! प्रत्याख्यान से जीव क्या उपार्जन करता है ? उत्तर - हे शिप्य ! प्रत्याख्यान से जीव आस्रव द्वारो को रोक रोता है । (तथा प्रत्याख्यान से जीव इच्छाओ का निरोध करता है । फिर इच्छानिरोध को प्राप्त हुआ जीव सर्व द्रव्यो मे तृष्णारहित हो परम शान्ति मे विचरता है | ) " -::--
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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