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________________ ३६८) [ श्री महावीर-वचनामृत है और इस तरह व्रतो के छिद्रो को ढंकने से वह जीव आस्रव रोकनेवाला होता है। साथ ही शुद्ध चारित्रवान् और अटप्रवचन-माता के प्रति उपयोगवाला बनता है तथा समाधिपूर्वक संयममार्ग मे विचरण करता है। विवेचन-अज्ञान, मोह अथवा प्रमादवश अपने मूल स्वभाव से दूर गए किसी जीव का अपने मूलस्वभाव की ओर पुनः लौटने की प्रवृत्ति प्रतिक्रमण कहलाती है। यह एक प्रकार की आत्मनिरीक्षण अथवा आत्मशोचन की क्रिया है। क्योकि इस क्रिया मे आत्मा द्वारा की गई प्रत्येक प्रवृत्ति का सूक्ष्म निरीक्षण कर उसकी त्रुटियाँ ढूंढ निकालने का लक्ष्य होता है और उसके लिये पाप-जुगुप्सापूर्वक पश्चात्ताप किया जाता है। जो त्रुटियाँ निरे पश्चात्ताप से सुधरे ऐसी न हों उनके लिये प्रायश्चित्त ग्रहण किया जाता है। जैसे घर को प्रतिदिन शुद्ध-स्वच्छ रखने से वह रहने योग्य बनता है, वैसे ही आत्मा को प्रतिदिन शुद्ध-स्वच्छ करने से व्रतो की आराधना वरावर होती है और उससे चारित्र उत्तम प्रकार का बनता है। __ काउस्सग्गेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? काउस्सग्गेणं तीयपडुपन्नं पायच्छित्तं विसोहेइ। विसुद्धपायच्छित्ते य जीवे नियहियए ओहरियभरु ध्व भारवहे पसत्थझाणोवगए सुहं सुहेणं विहरइ ।।शा [उत्त० अ० २६, गा० १२] प्रश्न-हे भगवन् ! कायोत्सर्ग से जीव क्या उपार्जन करता है। उत्तर-हे शिष्य ! कायोत्सर्ग से जीव अतीत और वर्तमान
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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