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________________ पहावश्यक] [३६७ वंदणएणं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? वंदणएणं नीयागोयं कम्मं खवेइ, उच्चागोयं कम्मं निबंधइ । सोहग्गं च णं अपडिहयं आणाफलं निव्वत्तेइ । दाहिणभावं च णं जणयइ ॥३॥ [उत्त० अ० २६, गा० १०] प्रश्न-हे भगवन् ! वन्दनक से जीव क्या उपार्जन करता है ? - उत्तर-हे शिष्य ! वन्दनक से जीव नीचगोत्रकर्म का क्षय कर उच्चगोत्र के लिए कर्म बांधता है। साथ ही वह अप्रतिहत सौभाग्य और उच्च अधिकार प्राप्त कर विश्ववल्लभ बनता है। विवेचन-गुरु को विधिपूर्वक वन्दन करना यह वन्दनक नाम का तीसरा आवश्यक है। गुरु के प्रति विनय किये 'बिना अथवा उनके प्रति अत्यन्त आदर-सम्मान की भावना रखे बिना आध्यात्मिक प्रसाद प्राप्त नही होता। उन्हे प्रतिदिन प्रात और साय विधिपूर्वक वन्दन करने से, ऊपर दिखलाये है वैसे लाभ प्राप्त होते है। पडिक्कमणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? पडिक्कमणणं वयछिदाणि पिहेइ । पिहिय-चयछिद्द पुण जीवे निरुद्धासवे असबलचरित्ते अट्ठसु पवयणमायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिये विहरइ ॥४॥ [उत्त० अ० २९, गा० ११ ] प्रश्न-हे भगवन् ! प्रतिक्रमण से जीव क्या उपार्जन करता है ? उत्तर-हे शिष्य ! प्रतिक्रमण से जीव व्रतों के छिद्रो को ढंकता
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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