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________________ ३६६] [श्री महावीर-वचनामृत विवेचन सावद्ययोग अर्यात पापकारी प्रवृत्ति। उसकी निवृत्ति अयांत् उससे विराम पा लेना। तात्पर्य यह है कि कोई भी जीव सामायिक को क्रिया अंगीकार करता है, तब मैं मन-वचन-काया से कोई पाप नहीं करूंगा अथवा दूसरे से नहीं कराऊंगा' ऐसी प्रतिज्ञा लेता है और तदनुसार सामायिक के बीच कोई भी पापकारी प्रवृत्ति नहीं करता है। उस समय यह धर्मध्यानादि शुभ प्रवृत्ति ही करता है। एक सामायिक की अववि दो घडी अर्यात अतालिस मिनट की होती है। चवीसत्यएणं भंते ! जीवे किं जणयड ? चउवीसत्यएणं दंसणविसीहिं जणयह ॥२॥ [टच न. २६, गा०६] प्रश्न-हे भगवन् ! चतुर्विंशति-स्तव से जीव क्या उपार्जन करता है ? __ उत्तर-हे शिष्य ! ऋतुविंगति-स्तव से जीव दर्शन-विशुद्धि का पार्जन करता है। विवेचन-निविद्धि अर्यात् नम्यक्त्व की निर्मलता । तात्पर्य यह है कि चौबीस तीर्यकरों के गुणों का सइभत कीर्तन-मजन करने से सम्यक्त्व मे रहो हुई अशुद्धि दूर हो जाती है और देव-गुन-धर्मके प्रति श्रद्धा दृढ होतो है। अन्य लवन, स्तुति तथा स्तोत्र आदि में श्रीजिनेश्वर देव की जो भक्ति की जाती है उसका फल भो यह समन्ना चाहिये।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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