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________________ षडावश्यक ] [ ३६८ रिक्त पक्ष के अन्त में, चातुर्मास के अन्त मे और सवत्सर के अन्त में भी प्रतिक्रमण की क्रिया की जाती है, उसे क्रमशः पाक्षिक-प्रति-क्रमण, चातुर्मासिक प्रतिक्रमण और सावत्सरिक प्रतिक्रमण कहा जाता है । आवश्यक क्रिया के सम्बन्ध मे अधिक स्पष्टीकरण करते हुए उसमे बताया गया है कि : 'आवस्सयस्स एसो पिडत्यो वण्णिओ समासेण । एतो एक्केक पुण, अज्झयण कित्तइस्सामि || तं जहा -- (१) सामाइयं, (२) चउवीसत्यओ, (३) वदणय, (४) पडिक्क्रमण, (५) काउस्सग्गो, (६) पच्चक्खाण | आवश्यक का यह समुदायार्थ सक्षेप में कहा है । अब उसमे से एक-एक अध्ययन का मैं वर्णन करूंगा, जो इस प्रकार है (१) सामायिक, (२) चतुर्विंशति- स्तव, (३) वन्दनक, (४) प्रतिक्रमण, (५) कायोत्सर्ग और (६) प्रत्याख्यान । तात्पर्य यह है कि आवश्यक क्रियाएं छः प्रकार की है, जिनमे से प्रत्येक का नाम इस प्रकार समझना चाहिये । सामाइएणं भंते! जीवे किं जणयड़ ? सामाइएणं सावज्जजोगविरहं जणय || १ || [ उत्त० अ० २६, गा० ८ ] प्रश्न - हे भगवन् ! सामायिक से जीव क्या उपार्जन करता है ? उत्तर - हे शिष्य ! सामायिक से जीव सावद्ययोग की निवृत्ति का उपार्जन करता है ।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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