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[ श्री महावीर वचनामृत
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जुए मे कुल जुआरी खेलते समय जैसे 'कृत' नामवाले पासे को ही ग्रहण करता है, किन्तु 'कलि' 'त्रेता' अथवा 'द्वापर' को ग्रहण नही करता और अपराजित रहता है, वैसे ही पण्डित पुरुष भी इस लोक में जगत्त्राता सर्वज्ञों ने जो उत्तम और अनुत्तर धर्म कहा है, उसको ही अपने हित के लिए ग्रहण करे । शेष सभी धर्मों को वह इस प्रकार छोड दे, जिस तरह कुशल जुआरी 'कृत' के अतिरिक्त अन्य सभी पासो को छोड़ देता है ।
झाणजोगं
?
समाहट्टु, कार्य विउसेज्ज
तितिक्खं परमं नच्चा,
मव्वसो |
आमोक्खाए परिव्वज्जासि ||२०||
[ सू० श्रु० १, अ०८, गा० २६] ग्रहण करे, देह - भावना का सर्वया विसर्जन करे, तितिक्षा को उत्तम समझे और शरीर के अन्त तक संयम
पण्डित पुरुष ध्यानयोग को
का पालन करता रहे ।
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