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________________ वीर्य और वीरता] [३५७ सम्यग्दर्शन से रहित और परमार्थ को नहीं समझनेवाले ऐसे विश्रुत-यशस्वी वीर पुरुषो का पराक्रम अशुद्ध है । वे सभी तरह से ससार की वृद्धि करने में सफल होते हैं। साराश यह कि उनसे ससार अधिक बढ़ जाता है। ज य बुद्धा महाभागा, वीरा सम्मत्तदंसिणो। मुद्धं तेसिं परक्कंतं, अफलं होइ सव्वसो ॥१७॥ [सू० १ ० १, अ० ८, गा० २३ } सम्यग्दर्शनवाले और परमार्थ के ज्ञाता ऐसे विश्रुत यशवाले वीर पुरुषों का पराक्रम शुद्ध है। वे ससार की वृद्धि मे सर्वथा निष्फल होते हैं । साराश यह कि किसी भी तरह उनके ससार की वृद्धि नही होती। कुजए अपराजिए जहा, अक्खेहिं कुसलेहिं दीवयं । कडमेव गहाय नो कलिं, नो तीयं नो चेव दावरं ॥१८॥ एवं लोगम्मि ताइणा, बुइए जे धम्मे अणुत्तरे । तं गिह हियंति उत्तम, कडमिव सेसऽवहोय पण्डिए ॥१६॥ [सू० श्रु० १, भ० २, उ० २, गा० २३-२४
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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