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[ श्री महावीर वचनामृत
अतिकम्मं ति वायाए, मणसा विन पत्थए । आयाणं सुसमाहरे ॥ १३॥
सन्चओ संबुडे दन्ते,
[ सू० श्रु १, अ०८, गा० २० ]
सच्चा वीर वाणी से और मन से भी किसी प्राणी की हिंसा न करे । वह सर्वथा सयमी बने, अपनी इन्द्रियो को जीते तथा सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग के साधनो को ग्रहण करे ।
कडं च कजमाणं च, आगमिस्तं च पावगं । सध्वं तं णाणुजाणंति, आयगुत्ता जिइंदिया || १४ || [ सू० श्रु० १, अ० ८, गा० २१]
जो पुरुष आत्मगुप्त ओर जितेन्द्रिय हैं, वे किसी के द्वारा किये गये, करते हुए अथवा भविष्य मे किये जानेवाले किसी प्रकार के पाप की अनुमोदना न करे ।
पण्डिए वीरियं लद्धुं
निग्घायाय पवत्तगं
धुणे पुल्वकडं कम्मं गवं वाऽवि ण कुव्वती ॥१५॥
[ सू० श्रु० १, भ० १५, गा० २२] पण्डित पुरुष कर्मों का उच्छेदन करने मे समर्थ ऐसे वीर्य को प्राप्त करके नवीन कर्म न करे तथा पूर्वकृत कर्मों का क्षय कर दे । जे अबुद्धा महाभागा, वीरा असम्मत्तदसिणो । असुद्धं तेर्सि परक्कतं, सफलं होड़ सव्वमो ॥१६॥ [ सू० श्रु० १, आ० ८, गा० २२]