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________________ बीर्य और वीरता] [३५४ ठाणी विविहठाणाणि, चइस्संति ण संसओ । अणियए अयं वासे, णायएहि सुहीहि य ।।६।। एवमादाय मेहावी, अप्पणी गिद्धिमुद्धरे । आरियं उपसंपज्जे, सव्वधम्ममकोवियं ॥१०॥ [सू० श्रु० १, भ०८, गा० १२-१३ ] यह निर्विवाद सत्य है कि विविध स्थानो मे रहे हुए मनुष्य किसी न किसी समय अपना स्थान अवश्य छोडेगे। जाति और मित्रजनो के साथ का यह निवास अनित्य है। इस तरह का विचार कर पण्डित 'पुरुष आत्मा के ममत्वभाव का छेदन कर देवे तथा सर्व धर्मों से अनिन्द्य ऐसे आर्यधर्म को ग्रहण करे। सह संमइए णचा, धम्मसारं सुणत्तु वा । समुवट्ठिए उ अणगारे, पच्चक्खायपावए ॥११॥ [सू० श्रु० १, भ० ८, उ० ३, गा० १४ ] अपनी बुद्धि से अथवा गुरु आदि के मुख से धर्म का सार जानने के बाद पंडित पुरुष श्रमण बनता है और सर्व पापो का प्रत्याख्यान करता है। अणु माणं च मायं च, तं पडिन्नाय पंडिए । आयतटुं सुआदाय, एवं वीरस्स चीरियं ॥१२॥ [सू० ६०१, ०८, गा० १८] माया और मान का फल हमेशा बुरा होता है-ऐसा मानकर पण्डित पुरुष उसका अणुमात्र भी सेवन न करे। वह आत्मार्थ को अच्छी तरह ग्रहण करे। यही वीर पुरुष की वीरता है।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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