SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 382
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४४ ] [ श्री महावीर वचनामृत जो बालजीव एक-एक महीने तक भोजन का त्याग कर केवल दर्भ के अग्र भाग पर रहे उतने भोजन से पारणा करता है, वह तीर्थङ्करप्ररूपित धर्म की सोलहवी कला को भी प्राप्त नही कर सकता । विवेचन — इन जगत् में बाल जीव भी अनेकविव तपस्याएं करते हैं। उनमे से कुछ तो अत्यन्त क्लिप्ट होती हैं। एक-एक महीने का उपवास करना और पारणा के समय नाम मात्र का अन्न लेना, यह कोई ऐसी-वैसी तपस्या नही है । इतना होने पर भी वह अज्ञानमूलक होने से उसका आध्यात्मिक दृष्टि से कोई विशेष मूल्य नही है | तीर्थङ्कर भगवन्तो ने जो धर्म बतलाया है, वह ज्ञानमूलक है और उसमे अहिंसा, संयम तथा तप को योग्य स्थान दिया गया है । ऐसे ज्ञानमूलक धर्म के साथ अज्ञानमूलक तपश्चर्या की तुलना ही कैसे हो सकती हैं ? इसलिये यहाँ पर कहा गया है कि वह इसकी सोलहवी कला को भी प्राप्त नही होते । जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे | | एवं पावाड़ मेहावी, अज्अप्पेण समाहरे ॥ १० ॥ [ सू० श्रु० १, अ० ८, बा० १६ ] जैसे ( सकट आजाने पर ) कछुआ अपने सभी अङ्गों को सिकोड़ लेता है, वैसे ही विवेकी मनुष्य भी अपनी पापपरायण सभी इन्द्रियों को आध्यात्मिक जीवन द्वारा अपने भीतर सिकोड़ लेवे । डहरे च पाण बुढे य पाणे, ते आत्तओ पासइ सन्चलोए ।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy