________________
बाल और पंडित]
[३४५ उच्वेहई लोगमिणं महन्तं,
बुद्धेऽपमत्तेसु परिवएज्जा ॥११॥
[सू० श्रु० १, भ० १२, गा० १८] ज्ञानी पुरुष इस सर्व लोक मे रह कर छोटे तथा बड़े प्राणियो को आत्मतुल्य देखते है, अर्थात् अपने समान ही सुख-दुःख की वृत्तिवाले मानते है । वे षड्द्रव्यात्मक इस महान् लोक का बराबर निरीक्षण करते हैं और ज्ञानी बनकर अप्रमत्तो के साथ विचरण करते हैं। सार यह है कि वे इन छोटे-बडे जीवो की हिंसा न हो जाय इसलिए प्रवजित होकर अप्रमत्त दशा धारण करते है। न कम्मुणा कम्म खवेन्ति बाला,
अकम्मुणा कम्म खवेन्ति धीरा । मेहाविणो लोभभयावतीता,
संतोसिणो नो पकरेन्ति पावं ॥१२॥
[सू० श्रु० १, भ० १२, गा० १५] अज्ञानी जीव भी प्रवृत्तियाँ तो काफी करते है, पर वे सभी कर्मोत्पादक होने से पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय नही कर पाती। जबकि 'धीर पुरुषो की प्रवृत्तियाँ अकर्मोत्पादक अर्थात् संयमवाली होने के कारण अपने पूर्वबद्ध कर्मों को क्षीण कर सकती है। जो पुरुष वस्तुतः बुद्धिमान् हैं, वे लोभ और भय-इन दोनों वृत्तियो से सदा दूर रहते है। और इस प्रकार सन्तोषगुण से विभूषित होने के कारण किसी भी प्रकार की पापमय प्रवृत्ति नही करते।