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बाल और पण्डित ]
वित्तं पसवो य नाइओ, तं बाले सरणं ति मन्नइ । एते मम तेसुवि अहं, नो ताणं सरणं न विज्जई ||६||
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[ सू० श्रु० १, अ० २, ३०३, गा० १६ ]
वाल जीव ऐसा मानता है कि धन, पशु तथा ज्ञातिजन मेरा रक्षण करेंगे। वे मेरे है, में उनका हूं। परन्तु इस प्रकार उसकी रक्षा नही होती अथवा उनको गरण नही मिलता ।
भणंता अकरेन्ता य, बंधमोक्खपइण्णिणो । समासार्सेति अप्पयं ॥७॥
वायाविरियमेत्तेणं, न चित्ता तायए भासा, कुओ विज्जाणुसासणं । विसन्ना पापकम्मेहिं वाला पंडियमाणिणो ॥८॥
[ उत्त० अ० ६, गा० १०-११] बन्च और मोक्ष को माननेवाला वादीगण संयम की बातें करते है, किन्तु सयम का आचरण नही करते है । वे केवल वचनों के दल से ही आत्मा को आश्वासन देते हैं ।
अनेक प्रकार की भाषाओं का ज्ञान मनुष्य को शरणभूत नही होता । विद्या- मन्त्र की साधना भी कहाँ से शरणभूत हो ? वे अपने को भले ही दिग्गज पण्डित मानें, परन्तु पापकर्म से लिप्त होने के कारण वास्तव मे अज्ञानी हैं ।
मासे मासे तु जो बालो, कुसग्गेणं तु भुंजए । न सो सुअक्खायधम्मस्त, कलं अग्घर सोलसिं ॥ ६ ॥
[ उत्त० भ० ६, गा० ४४ ]