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________________ ३४२ [श्री महावीर-वचनामृत इससे जो पुरुष युक्त हैं वे अविद्यापुरुष हैं । तात्पर्य यह है कि जो पुरुष मोह-मिथ्यात्व के कारण सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं कर सके, उन्हे अविद्यापुरुप समझना चाह्येि। वे पाप-प्रवृत्ति मे सदा लिप्त रहने से कर्मवन्धन करते हैं और उसी के फलस्वरूप भयङ्कर दुःख भोगते हैं। ऐसे बहुकर्मी आत्माओं का ससार बढ जाने से वे विविध योनियों मे उत्पन्न होकर मरते ही रहते हैं। उनकी इस जन्म-मरण की शृखला का अन्त दीर्घ काल तक नहीं आता। समिक्ख पंडिए तम्हा, पासजाइपहे वह । अप्पणा सच्चमेसेज्जा, मेत्तिं भूएसु कप्पए ।।४।। [उत्त० अ०६, गा० २] अतः पण्डित पुरुष एकेन्द्रियादिक पाशरूप बहुत प्रकार के जातिपथ का विचार करके अपनी आत्मा के द्वारा सत्य का अन्वेषण करे और सब प्राणियों के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार करे। निच्चुबिग्गो जहा तेणो, अत्तकम्मेहिं दुम्मई। तारिसो मरणंते वि, न आराहेइ संवरं ।।। [दय० ५० ५, २० २, गा० ३६] जमे चोर सदा भयमीत रहता है और अपने पुलमों की वजह से ही दुःश्व पाता है, वैसे ही अनानी मनुप्य भी नित्य प्रति भयभीत रहता है और अपने कुकर्मों के कारण ही दुःख पाता है। ( उसको इन स्थिति में उन्त तक पोई पन्विर्तन नहीं होना।) मृत्यु गा भय सामने दोमने पर भी यह मंयम को बागना नहीं करता।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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