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________________ १ ३ - ३३८] [श्री महावीर-वचनामृत कसायपच्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? कसायपचक्खाणणं वीयरागभाव जणयइ । वीयरागभावपडिवन्नेवि यणंजीवे समसुहदुक्खे भबड़ा|१३|| [ उत्त० अ० २६, गा० ३६] प्रश्न-हे भगवन् ! कषाय का परित्याग करने से जीव क्या उपार्जन करता है ? उत्तर-हे शिष्य ! कषाय का परित्याग करने से जीव मे वीतरागभाव पैदा होता है और वीतरागभाव को प्राप्त किया हुआ वह जीव सुख-दुःख मे सदा समान भाववाला होता है। कोहविजएणं भंते ! जीवे किं जणयह ? कोहविजएणं खन्ति जणयइ, कोहवेयणिज्जं कम्मं न बंधइ, पुन्नबद्धं च निज्जरेड् ॥ १४ ॥ [उत्त० अ० २६, गा० ६७] प्रश्न- हे भगवन् ! क्रोच को जीतने से जीव क्या आर्जन करता है! उत्तर-हे शिष्य ! क्रोध को जीतने से जीव क्षमागण का उपार्जन करता है। ऐसा क्षमायुक्त जीव क्रोषवेदनीयकोच जन्यरो का बन्च नहीं करता और पूर्ववद्ध कर्मो की निर्जग कर देता है। __ माणविजएणं भन्ते ! जीवे कि जणयह ? माणविजएणं महवं जणयइ, माणवेयणिज्ज कम्मं न बन्धट, पुन्यबद्धं च निजरेह ॥१५॥ [उघ १० २६, गा३८]
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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