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________________ ३२८] [श्री महावीर-वचनामृत __ मन भाव को ग्रहण करता है और भाव मन का ग्राह्य विषय है। मनोज्ञ भाव राग का कारण बनता है, जबकि अमनोज्ञ ( अप्रिय ) भाव द्वेष का कारण बनता है। भावेसु जो गिद्धिमुवेइ ति, अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे कामगुणेसु गिद्ध, करेणुमग्गावहिए गजे वा ।।२२।। [उत्त० अ० ३२, गा०८६] जैसे रागातुर और कामवासना मे आसक्त हाथी हथिनी के प्रति । वाकर्षित होकर मृत्यु पाता है, वैसे ही जो मनुष्य भाव मे तीन वासक्ति रखता है, वह ( उन्मार्ग मे प्रेरित होकर ) असमय मे ही विनाश को प्राप्त होता है। एविन्दियत्था य मणस्स अत्या, दुक्खस्स हेऊ मणुयस्स रागिणो । ते चेव थो पि कयाइ दुक्खं, न वीयरागस्स करेन्ति किंचि ।।२३।। [टत० अ०३२, गा० १००] इन्द्रिय और मन के विषय रागो पुरुष के लिये ही दुःख के कारण स्नते हैं। ये विषय योतराग को जरामा भी दु. या कष्ट नहीं ईनाते।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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