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[श्री महावीर-वचनामृत
__ मन भाव को ग्रहण करता है और भाव मन का ग्राह्य विषय है। मनोज्ञ भाव राग का कारण बनता है, जबकि अमनोज्ञ ( अप्रिय ) भाव द्वेष का कारण बनता है। भावेसु जो गिद्धिमुवेइ ति,
अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे कामगुणेसु गिद्ध,
करेणुमग्गावहिए गजे वा ।।२२।।
[उत्त० अ० ३२, गा०८६] जैसे रागातुर और कामवासना मे आसक्त हाथी हथिनी के प्रति । वाकर्षित होकर मृत्यु पाता है, वैसे ही जो मनुष्य भाव मे तीन वासक्ति रखता है, वह ( उन्मार्ग मे प्रेरित होकर ) असमय मे ही विनाश को प्राप्त होता है। एविन्दियत्था य मणस्स अत्या,
दुक्खस्स हेऊ मणुयस्स रागिणो । ते चेव थो पि कयाइ दुक्खं,
न वीयरागस्स करेन्ति किंचि ।।२३।।
[टत० अ०३२, गा० १००] इन्द्रिय और मन के विषय रागो पुरुष के लिये ही दुःख के कारण स्नते हैं। ये विषय योतराग को जरामा भी दु. या कष्ट नहीं ईनाते।