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________________ विषय ] [ ३२३ 'पश्चात् भी वह रूप से सन्तुष्ट न होने के कारण सदैव दुःखी रहता है। उसका कोई सहायक नही होता । रूवाणुरत्तस्स रस्स एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि १ । तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं, निव्वतई जस्स कए ण दुक्खं ॥ १० ॥ [ उत्त० अ० ३२, गा० ३२ ] इस प्रकार रूप मे आसक्ति रखनेवाले मनुष्य को थोडा-सा भी सुख कहाँ से मिल सकता है ? जिस वस्तु को प्राप्त करने के लिए उसने अपार कष्ट उठाया, उसका उपभोग करने मे भी अत्यन्त कष्ट है । एमेव रूवम्म गओ पओसं, उवे दुक्खोहपरंपराओ | पट्ठचित्तोय चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥११॥ [ उत्त० अ० ३२, गा० ३३ ] इसी तरह अमनोज्ञरूप के प्रति द्वेष करनेवाला जीव भी दुःख की परम्परा को प्राप्त होता है और दुष्ट चित्त से कर्म का उपार्जन करता है । फिर वही कर्म उसके लिए विपाक - काल मे दुःखरूप हो जाता है । रूवे विरत मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण ।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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