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'पश्चात् भी वह रूप से सन्तुष्ट न होने के कारण सदैव दुःखी रहता है। उसका कोई सहायक नही होता ।
रूवाणुरत्तस्स रस्स एवं,
कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि १ ।
तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं,
निव्वतई जस्स कए ण दुक्खं ॥ १० ॥
[ उत्त० अ० ३२, गा० ३२ ]
इस प्रकार रूप मे आसक्ति रखनेवाले मनुष्य को थोडा-सा भी सुख कहाँ से मिल सकता है ? जिस वस्तु को प्राप्त करने के लिए उसने अपार कष्ट उठाया, उसका उपभोग करने मे भी अत्यन्त कष्ट है । एमेव रूवम्म गओ पओसं, उवे दुक्खोहपरंपराओ |
पट्ठचित्तोय चिणाइ कम्मं,
जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥११॥ [ उत्त० अ० ३२, गा० ३३ ]
इसी तरह अमनोज्ञरूप के प्रति द्वेष करनेवाला जीव भी दुःख की परम्परा को प्राप्त होता है और दुष्ट चित्त से कर्म का उपार्जन करता है । फिर वही कर्म उसके लिए विपाक - काल मे दुःखरूप हो जाता है ।
रूवे विरत मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण ।