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[श्री महावीर-चचनामृत प्रिय रूप को पाने का लालची और आसक्त जीव कदापि सन्तुष्ट नहीं होता और असन्तुष्ट होने के कारण वह दुःखो का भोगी बनता है। तथा दूसरे की वस्तुओ के प्रति आकृष्ट होकर उनके स्वामी के दिये बिना ही ले लेता है, अर्थात उसकी चोरी करने के पाप तक हुँच जाता है। तहाभिभूयस्स अदत्तहारिणो,
रूवे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा,
तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥८॥
[उत्त० भ० ३२, गा० ३० ] तृष्णा के वशीभूत हुआ चोरी करनेवाला और रूप के परिग्रह मे अतृप्त जीव लोभ दोष से माया एव मृषावाद की वृद्धि करता है, परन्तु फिर भी वह दुखों से मुक्त नही हो सकता। मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य,
पओगकाले य दुहो दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, रूवे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥६॥
उत्त० अ० ३२, गा० ३१] वह दुरन्त आत्मा झूठ बोलने के पहले और पश्चात् और बोलने सगय भी दुःखी होता है। साथ ही अदत्त वस्तु ग्रहण करने के