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[श्री महावीर-वचनामृत न लिप्पई भवमझे वि सन्तो,
जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ॥१२॥
__ [उस० अ०३२, गा० ३४] रूप से विरक्त मनुष्य शोकरहित हो जाता है। जैसे जल में रहते हुए भी कमलपत्र जल से लिप्त नहीं होता, वैसे ही संसार मे रहते हुए भी वह विरक्त पुरुष दुख-समूह से लिप्त नहीं होता । सहस्स सोयं गहणं वयंति,
सोयस्स सदं गहणं वयन्ति । रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ।।१३।।
[उत्त० अ० ३२, गा० ३६] शब्द को ग्रहण करनेवाली श्रोत्रेन्द्रिय कहलाती है और श्रोत्रेन्द्रिय का ग्राह्यविषय शब्द है। मनोज्ञ (प्रिय) शब्द राग का कारण बनता है, जबकि अमनोज्ञ (अप्रिय) गन्द द्वेष का कारण वनता है। सदसु जो गिद्धिमुवेइ तिबं,
अकालिशं पावड़ से विणासं । रागाउरे हरिणमिए ब मुझे, सद्द अतित्ते समुवेइ मच्चुं ॥१४॥
[टत्त००, गा० ३७]
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