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धारा
२८ :
रागस्स हेडं
विषय
रूवस्स चक्खुं गहणं वयंति,
चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति ।
समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउ अमणुन्नमाहु ||१|| [ उत्त० अ० ३२, गा० २३ ]
रूप को ग्रहण करनेवाली चक्षुरिन्द्रिय कहलाती है और चक्षुरिन्द्रिय का ग्राह्य विषय रूप (सोन्दर्य) है । मनोज्ञ ( प्रिय ) रूप राग का कारण बनता है एवं अमनोज्ञ (अप्रिय) रूप द्वेष का ।
रूवेसु जो गिद्धिमुवे
तिन्वं,
अकालियं पावड़ से विणास |
रागाउरे से जह वा पयंगे,
आलोयलोले समुवे मच्चुं ॥२॥
[ उत्तः अ० ३२, गा० २४ ]
जैसे स्निग्ध दीपशिखा के दर्शन ने आकृष्ट बना हुआ रागा
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