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________________ ३०० ] [ श्री महावीर-वचनाटक पतग अकाल मौत का शिकार बनता है, वैसे ही रूप मे अत्यन्त आसक्ति रखनेवाला असमय में ही विनाश का भोग बनता है । जे यात्रि दोसं समुवेड़ तिव्यं, तंसि क्वणे से उ उवे दुक्खं । दुद्दंतदोसेण सएण जंतू, न किंचि रूवं अवरज्झई से || ३ || [ दश० अ० ३२, गा० २५] जो जीव अरुचिकर रूप देख कर तीव्र द्वेष करता है, वह उसी समय दुःख का अनुभव करता है । वह अपने दुर्दान्त दोष से ही दुःखी होता है । रूप उसे कुछ भी दुःख नही देता । । एगंतरच रुइरंसि रूवे, अतालिसे से कुणई पओसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो || ४ || [ उत्तः अ० ३२, गा० २६ ] जो जीव मनोहर रूप के प्रति एकान्त राग रखता है और अरुचिकर रूप के प्रति ऐकान्तिक द्वेष रखता है, वह अज्ञानी अनन्त दुःखों का शिकार बनता है । जबकि विरक्त मुनि उसमे लिप्त नहीं होता । ( इसलिए वह उस दुःख समूह का शिकार नही बनता ) । रुवाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ णेगरूवे ।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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