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[ श्री महावीर-वचनाटक
पतग अकाल मौत का शिकार बनता है, वैसे ही रूप मे अत्यन्त आसक्ति रखनेवाला असमय में ही विनाश का भोग बनता है । जे यात्रि दोसं समुवेड़ तिव्यं, तंसि क्वणे से उ उवे दुक्खं ।
दुद्दंतदोसेण सएण जंतू,
न किंचि रूवं अवरज्झई से || ३ ||
[ दश० अ० ३२, गा० २५]
जो जीव अरुचिकर रूप देख कर तीव्र द्वेष करता है, वह उसी समय दुःख का अनुभव करता है । वह अपने दुर्दान्त दोष से ही दुःखी होता है । रूप उसे कुछ भी दुःख नही देता । ।
एगंतरच रुइरंसि रूवे,
अतालिसे से कुणई पओसं ।
दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले,
न लिप्पई तेण मुणी विरागो || ४ || [ उत्तः अ० ३२, गा० २६ ] जो जीव मनोहर रूप के प्रति एकान्त राग रखता है और अरुचिकर रूप के प्रति ऐकान्तिक द्वेष रखता है, वह अज्ञानी अनन्त दुःखों का शिकार बनता है । जबकि विरक्त मुनि उसमे लिप्त नहीं होता । ( इसलिए वह उस दुःख समूह का शिकार नही बनता ) ।
रुवाणुगासाणुगए य जीवे,
चराचरे हिंसइ णेगरूवे ।