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लद्दूण वि उत्तमं सुई,
[ श्री महावीर वचनामृत
सद्दहणा पुणरावि दुल्लहा ।
जणे,
समयं गोयम ! मा पमायए || १८ ||
[ उत्त० अ० १०, गा० १६ ]
उत्तम धर्मश्रवण का अवसर प्राप्त होने पर भी उस पर श्रद्धा होना अत्यन्त दुष्कर है, क्योकि बहुत से लोग उत्तम धर्मश्रवण के पश्चात भी मिथ्यात्व का सेवन करते दिखाई देते हैं । इसलिये हे गौतम! तू समय मात्र का भी प्रमाद मत कर ।
धम्मं पि हु मद्दहन्तया, दुल्लहया काएण फासया । इह कामगुणेसु मुच्छिया, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ १६ ॥ [ उत्त० अ० १०, गा० २०]
धर्म पर अटूट श्रद्धा बैठ जाने पर भी उसका काया से आचरण करना अति कठिन है, क्योंकि धर्म पर श्रद्धा रखनेवाले लोक भी कामभोगों मे मूच्छित दिखाई देते है । इसलिये हे गौतम ! तू समय. मात्र का भी प्रमाद मत कर ।
परिज्ररह ते सरीरयं, केसा पडरया हवंति ते ।
मिच्छत्तनिसेवए