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________________ प्रमाद] [ ३६३ क्योंकि मनुष्यो मे भी अनेक दस्यु और म्लेच्छ होते है, अर्थात् अनार्य होते हैं । इसलिये हे गौतम ! तू समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। लघृण वि आरियत्तणं, अहीणपंचदियया हु दुल्लहा। विगलिन्दियया हु दीसई, समयं गोयम ! मा पमायए ॥१६॥ [उत्त० अ० १०, गा० १७ ] आर्यत्व प्राप्त करने के उपरान्त भी पाँचो इन्द्रियों से पूर्ण होना -दुर्लभ है, क्योकि अनेक मनुष्य इन्द्रियो की विकलता, न्यूनता अथवा हीनता वाले होते है। अतः हे गौतम ! तू समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। अहीणपंचेंदियत्तं पि से लहे, उत्तमधम्मसुई हु दुल्लहा । कुतित्थिनिसेवए जणे, समयं गोयम ! मा पमायए ॥१७॥ उत्त० अ० १०, गा०१८] पाँच इन्द्रियो से पूर्ण होने पर भी उत्तम धर्म का श्रवण वस्तुतः दुर्लभ है ; क्योकि बहुत से मनुष्य कुतीबियो की सेवा करनेवाले होते हैं । इसलिये हे गौतम ! तू समय माय का भी प्रमाद मत कर।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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