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काम-भोग]
[३०३
- इत्तरवासे य बुज्झह,
गिद्धनरा कामेसु मुच्छिया ।।२।।
[सू० श्रु० १, अ०, उ० ३२, गा०८] इस ससार में तू जीवन को ही देख । उसे ही भली-भाँति परख । वह तरुणावस्था मे अथवा सौ वर्ष की आयु मे ही टूट जाता है। यहाँ तेरा कितना क्षणिक निवास है, इसे तू अच्छी तरह समझ । आश्चर्य है कि आयु का विश्वास न होने पर भी मनुष्य कामभोग मे आसक्त रहते है।
इह कामाणियहस्स, अत्तट्ठ अवरज्झई । सोच्चा नेयाउयं मग्गं, जं भुजो परिभस्सई ॥२६॥
[उत्त० अ०७, गा० २५ ] इस ससार मे कामभोग से निवृत्त न होनेवाले पुरुष का आत्मप्रयोजन ही नष्ट हो जाता है। मोक्षमार्ग को सुनकर भी वह पुनः पुनः भ्रष्ट हो जाता है।
वाहेण जहा व विच्छए, अबले होइ गवं पचोइए। से अन्तसो अप्पथामए, नाइवहे अवले विसीयइ ॥२७॥ एवं कामेसणं विऊ, अज सुए पयहेज्ज संथवं । कामी कामे ण कामए, लद्धे वा वि अलद्ध कण्हुई ॥२८॥
[सू० श्रृ० १, अ० २, उ० ३, गाः ५-६] जैसे वाहक द्वारा पीडा पहुँचाकर चलाया गया बल थक जाता है और मार खाने पर भी निर्वल होने के कारण चल नही सकता और