________________
३०४ ]
[श्री महावीर-वचनामृत वह अन्त मे कष्ट का अनुभव करता है, वैसे ही क्षीण मनोवलवाला अविवेकी पुरुप सबोध प्राप्त होने पर भी कामभोगरूपी कीचड से बाहर नहीं निकल पाता। वह प्रायः ऐसे ही विचार करता रहता है कि 'मैं आज अथवा क्ल कामभोगों को छोड़ दूंगा'। सुख की इच्छा रखनेवाला पुरुष कामभोग की कामना कदापि न करे और प्राप्त भोगों को भी अप्राप्त कर दे अर्थात् छोड दे। दुप्परिच्चया इमे कामा,
नो सुजहा अधीरपुरिसेहिं । अह सन्ति सुन्वया साहू, जे तरंति अतरं वणिया चा ॥२६॥
उत्त० म०८, गा०६] कामभौगो का त्याग करना अत्यन्त कठिन है। निर्वल पुरुष इन्हे सरलता से नही छोड सकते। परन्तु जो सुव्रतो को धारण करनेवाले साधु पुरुष है, वे जहाज द्वारा व्यापार करनेवाले पुरुषों के समान कामवासना के दुस्तर समुद्र को पार कर जाते हैं। कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं,
सबस्स लोगस्स सदेवगस्स । जंकाइयं माणसियं च किंचि,
तस्सऽन्तगं गच्छइ वीयरागो ॥३०॥
[उत्त० अ० ३२, गा०१६]]