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________________ २६८ [श्री महावीर-वचनामृत बाद मे वह बस और स्थावर जीवो मे दड का आरम्भ करता है। किसी प्रकार का प्रयोजन सिद्ध होता हो या नही, फिर भी वह भोगी प्राणिसमूह की विविध प्रकार से हिंमा किया ही करता है। हिंसे वाले मुसाबाई, माइल्ले पिसुणे सड । भुंजमाणे सुरं मंसं, सेयमेयं ति मन्नई ॥१॥ [ उ० अ० ५, गा०६] अज्ञानी जीव हिंसा, असत्य, कपट, चुगली, धूर्तता आदि के सेवन करने लगता है। वह मदिरा और मास खानेवाला बनता है और उनको ही श्रेयस्कर मानता है। ___ कायसा वयसा मच, वित्ते गिद्धेय इत्थिसु । दुहओ मलं संचिणई, सिसुनागो व मट्टियं ॥१४॥ [उ० अ० ५, गा० १०] घन और स्त्रियो मे आसक्त बना हुआ भोगी पुरुष काया से मदमत्त बन जाता है और उसके बचनों मे भी मिथ्याभिमान की भलक आ जाती है । वह कैचुआ की भांति वाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार से मल का सचय करता है। ___ विवेचन -कैचुआ का आहार ही मिट्टी है, अतः वह पेट मे मिट्टी भरता है और वाहर भी मिट्टी से सना रहता है । इसी तरह भोगी पुरुष भी आन्तरिक रूप से मलिन कर्मों का समय करता है, और बाह्य रूप से भी अपवित्र बनता है।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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