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काम-भोग]
[२६५ किवणेण समं पगन्भिया,
न वि जाणंति समाहिमाहितं ॥३॥
[सू० ० १, भ० २, उ० ३, गा० ४ ] जो मनुष्य इस जगत् मे पूर्वजन्म के सुकृत्यो के फलस्वरूप सुखवैभव को प्राप्त किये हुए हैं, और काय-भोग मे आसक्त होकर विलासी जीवन विताते है, वे कृपण की तरह धर्माचरण मे मिथिलता प्रदर्शित करते है और ज्ञानी पुरुपो द्वारा कथित समाधि-मार्ग को नही जानते। भोगामिसदोसविसन्ने,
हियनिस्सेयसवुद्धिवोच्चत्थे । बाले य मंदिए मुढे, बज्झई मच्छिया व खेलम्मि ॥४॥
[उत्त० अ०७, गा०५ ] भोगरूपी मास-दोष मे लुब्ध, हित और मोक्ष मे विपरीत बुद्धि रखनेवाला अज्ञानी, मन्द और मूर्ख जीव कर्मपाश मे इस प्रकार फंस जाता है, जिस प्रकार मक्खी बलगम मे।
उबलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पई । भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चई ॥५॥
[ उत्त० अ० २५, गा० ३६] . भोग मे फंसा हुआ मनुष्य कर्म से लिप्त होता है, अभोगी कर्म से