________________
धारा : २६:
काम-भोग
अणागयमपस्मता, पच्चुप्पन्नगवेसगा । ते पच्छा परितप्पन्ति, खीण आउम्मि जोवणे ॥१॥
[ सूः श्रु० १, अ० ३, उ० ४, गा० १४] असत्कर्म से भविप्य मे होनेवाले दुःखो की ओर न देखते हुए जो केवल वर्तमान सुखो को दटते है, अर्थात् कामभोग में मन्न रहते हैं, वे यौवन और आयु के क्षीण होने पर पश्चात्ताप करते हैं।
जे के सरीरे यत्ता, वण्णे स्वे य सचसो । मणमा काय-वकेणं, गवे ते दुक्खसंभवा ।। २ ॥
[उत्तः अ० ६, गा.१०] जो कोई मनुष्य गरीर के प्रति ही आसक्त है और मन, काया तया पत्रन से केवल स्प और रग मे पूरी तरह सराबोर रहते हैं, वे सब दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं। जे इह सायाणगा नग,
अझाववन्ना कामेहिं मुच्छिया ।