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________________ [ २६३ दु शील] डित बने रहते है। और ऐसे ही ये मूढ जो सच्ची धर्म-प्ररूपणा है, उस में शङ्का करते हैं और आरम्भ-समारम्भ के कार्यों मे निःशङ्क बने रहते है। ___लोभ, मान, माया और क्रोध का परित्याग कर मनुष्य कर्मरहित बन सकता है, किन्तु अज्ञानी-मूर्ख मनुष्य इस बात को छोड देता है। जो बन्चन-मुक्ति के उपायो को कतइ नही जानते, ऐसे मिथ्यादृष्टि अनार्य लोग इसी तरह पाशबद्ध पशुओ के समान अनन्त बार घात को प्राप्त होते हैं। धम्म ज्जियं च ववहारं, वुद्धहिं आयरियं सया । तमायरंतो ववहारं, गरहं नाभिगच्छइ ॥१३॥ [उत्त० अ० १, गा० ४२ ] जो व्यवहार धर्म-सम्मत है और जिसका ज्ञानी पुरुषो ने भी सदा आचरण किया है, उस व्यवहार का आचरण करनेवाला मनुष्य कभी भी निन्दा का पात्र नहीं होता। अमणुन्नसमुप्पागं, दुक्खमेव विजाणिया । समुप्पायमजाणंता, कहं नायंति संवरं ॥१४॥ [सू० श्रु० १, भ० १, उ० ३, गा० १०] अशुभ अनुष्ठान करने से दुःख की उत्पत्ति होती है । जो मनुष्य दुःख की उत्पत्ति का कारण नही जानते, वे भला दुःख के विनाश का उपाय किस प्रकार जान सकते हैं ? - -
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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