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[श्री महावीर-वचनामृत __रक्षण-रहित वन्य पशु निःशङ्क (सुरक्षित ) स्थान मे शङ्कित __ रहते हैं और शङ्कित ( भयग्रस्त ) स्थान मे निःशङ्क रहते
हैं। इस तरह सुरक्षित स्थान मे गड़ा करते हुए तथा पाशवाले स्थान मे शङ्कारहित वनकर वे अज्ञानी और भयग्रस्त जीव पाशयुक्त स्थान मे फंस जाते हैं। यदि ये पशु सभी प्रकार के बन्चनो को लांघ कर अथवा उसके नीचे से निकल जाय तो वन्वनों से मुक्त हो सकते है। किन्तु मूर्ख पशुओ को यह वात दिखाई नही देती-समझ मे नही आतो । फलतः अपना हित न जाननेवाले ये पशु भयङ्कर पागवाले प्रदेश मे पहुँच कर पैरों से पाश मे फंस जाते हैं और वही वध कर दिये जाते हैं।
एवं तु समणा एगे, मिच्छदिट्ठी अणारिया । असकियाई संकेति, सकियाई असंकिणो ॥६॥ धम्मपन्नवणा जा सा, तं तु संकति मूढगा। आरंभाइं न संकंति, अवियत्ता अकोविया ॥१०॥ सम्बप्पगं विउकस्स, सन्वं मं विहूणिया । अम्पत्तियं अकम्मंसे, एयमहूं मिगे चुए ॥११॥ ज एयं नाभिजाणंति, मिच्छदिट्ठी अणारिया । मिगा वा पासबद्धा ते, घायमेसंति पंतसो ॥१२॥
[सू० श्रु० १, अ० १, १००, गा० १० से० १३] । इस प्रकार कुछ श्रमण जो कि मिय्यादृष्टि और अनार्य है, वे शङ्कारहित स्थानों मे गवा करते हैं और गड़ित ल्यान मे अग