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धारा : २५.
दुःशील चीराजिणं नगिणिणं, जडी संघाडिमुंडिणं । एयाणि वि न तायन्ति, दुस्सीलं परियागयं ॥१॥
[उत्त० भ०५, गा० २१ ] चोवर, मृगचर्म, नग्नत्व, जटा, सघाटिका ( बौद्ध साधुओ के ओढ़ने का उत्तरीय वस्त्र) और सिर का मुण्डन आदि किसी भी दुःशील को दुर्गति से बचा नहो सकते। तात्पर्य यह है कि बाह्य दृश्य (लिङ्ग) कितना भी अच्छा क्यों न हो ? किन्तु शील उत्तम हो तभी वह पुरुष सद्गति प्राप्त कर सकता है ।
जहा सुणी पुइकन्नी, निकसिजई सचसो । एवं दुस्सीलपडिणीए, मुहरी निकसिज्जई ॥२॥
[उत्त० अ० १, गा० ४]
जैसे सडे हुए कानवाली कुतिया सब स्थानो से निकाल दी जाती है, वैसे ही दुःशील और गुरुजनों के प्रति वर रखनेवाला, असम्बद्ध प्रलापी मनुष्य सब स्थानों से निकाल दिया जाता है।