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________________ धारा . २४: कुशिष्य वहणे वहमाणस्स, कन्तारं अइवत्तई । जोए वहमाणस्स, संसारो अइवत्तई ॥१॥ जैसे गाडी मे सचे हुए वैलो को जोतने से वे सरलता से वन-प्रातर को पार कर जाते हैं, वैसे ही सुशिष्यो को योग-सयम रूपी वाहन मे जोजने से वे भी ससाररूपी अरण्य को सुखपूर्वक पार कर जाते हैं। खलंके जो उ जोएइ, विहम्माणो किलिस्सई । असमाहिं च वेएइ, तोत्तओ से य भजई ॥२॥ जो पुरुष वाहन मे अडियल बैलो को जोतता है, वह उन्हें पीटतेपीटते हैरान हो जाता है, विषाद का अनुभव करता है और उसका कोड़ा भी टूट जाता है। एग डसइ पुच्छस्मि, एगं विन्धहऽभिक्खणं । __ एगो मंजइ समिलं, एगो उप्पहपहिओ ॥३॥ जब वे दुष्ट दैल वाहक की इच्छा के अनुसार गमन नहीं करते तब वह क्रोध मे आकर एक की पूंछ मरोडता है तो दूसरे को वार-बार आर लगाता है । तव एक बैल जुए को तोड डालता है और दूसरा इधर-उधर जाता है।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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