________________
विनय (गुर-सेवा)]
[२८३ जे य चंडे मिए थद्धे, दुबाई नियडी सढे। वुज्झइ से अविणीअप्पा, कटुं सोअगयं जहा ॥४६॥
[दश० अ० ६, उ० २, गा० ३] जो आत्मा क्रोधी, अज्ञानी, अहकारी, सदा कटु बोलनेवाला, मायावी और धूर्त होता है, उसे अविनीत समझना चाहिये। वह पानी के बहाव मे गिरी हुई लकडी की तरह संसार के बहाव मे बह जाता है। स देवगान्धवमणुस्सपूइए, चइत्तु देहं मलपंकपुब्वयं । सिद्धे वा हवइ सासए, देवे वा अप्परए महिडिए ॥४७॥
[उत्त० अ० १, गा०४८] देव, गन्धर्व और मनुष्यो से पूजित ऐसा वह विनीत शिष्य मलमूत्रादि से युक्त ऐसे इस शरीर को त्याग कर 'सिद्ध और शाश्वत वनता है, अथवा अल्पकर्म बाकी रहने पर महान् ऋद्धिशाली देव बनता है।