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________________ २८२] [श्री महावीर-वचनामृत जो साघु रोष करता है अयवा गुरु के प्रति अनादर व्यक्त करता है, वह वास्तव मे साधु नहीं है। हियं विगयभया बुद्धा, फरसं पि अणुसासणं । वेसं तं होड़ मूढाणं, खंतिसोहिकरं पयं ॥४३॥ [उत्त० अ० १, गा०२६] निर्भय और तत्त्वज्ञ शिष्य गुरुजनों के कठोर अनुशासन को भी अपने लिए परम हितकारी मानते हैं, जब कि मूढ अज्ञानी शिष्यों के लिये क्षमा और आत्म-शुद्धिकर वह शिक्षापद द्वेष का कारण बन जाता है। न कोवए आयग्यिं, अप्पाणं पि न कोवए । बुद्धोषघाई न सिया, न सिया तोत्तगवेसए ॥४४|| [दशः ०१, गा०४०] विनीत गिप्य आचार्य पर कदापि क्रोच न करे। वैसे ही अपनी आत्मा पर भी क्रोव न करे। न ही वह तत्ववेत्ताओ का उपघात करे और उनके छिद्र खोजे। आयग्यिं कुवियं नच्चा, पत्तिएण पमायए । विज्ञवेज पंजलीउडो, वएज न पुणुत्ति य ॥४॥ [उत्त० म०६, गा०४] विनीत गिज्य आचार्य को कुपित जानकर प्रीतिकारक वचनों से प्रसन्न करे और हाय जोडता यो कहे-'फिर ने सा अपगन कमी न कांगा।'
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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