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विनय (गुरु- सेवा ) ]
आगम्मुक्कडुओ संतो,
पुच्छेज्जा पंजलीउडो ||४० ॥
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[ उत्त० अ० १, गा० २२ ]
गुरु महाराज से यदि कुछ पूछना हो तो शिष्य अपने आसन अथवा शय्या पर बैठा-बैठा कभी नही पूछे, अपितु गुरु के समीप जाकर और उनके पास उकडू बैठ कर और दोनो हाथ जोडकर पूछे । जं मे बुद्धाणुसासन्ति, सीएण फरुसेण वा ।
मम लाभो ति पेहाए, पयओ तं पडिस्सुणे ॥ ४१ ॥ [ उत्त० अ० १, गा० २७]
गुरु महाराज कोमल अथवा कठोर शब्दो मे मुझे जो कुछ शिक्षा देते है, उसमे मेरी ही भलाई छिपी हुई है— मुझे ही लाभ है, ऐसा विचार कर शिष्य उसे अत्यधिक सावधानी से ग्रहण करे ।
अगुसासणमोवायं, दुक्कडस् य
दुक्कडस् य चोयणं ।
हियं तं मण्णई पण्णो, वेस्सं होइ असाहुणो ||४२॥
[ उत्त० अ० १, गा० २८ ] प्रज्ञावान् साधु सदा ऐसा मानता है कि गुरु महाराज ( मधुर अथवा कटु शब्दो से ) मुझे जो कुछ अनुशासित करते है, वह सब आत्मोन्नति के उपाय- स्वरूप ही है और मेरे दुष्कृतो का नाश करनेवाला है । परन्तु जो असाधु है उसके लिये यही अनुशासन द्वेष का कारण बनता है। आशय यह है कि गुरुमहाराज द्वारा हितबुद्धि से दिया गया उपालम्भ या कहे गये दो-चार कटु शब्दो को सुनकर