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[श्री महावीर-वचनामृत
जैसे अडियल घोड़ा वार-बार चावुक की अपेक्षा रखता है, वैसे ही विनीत शिप्य वार-चार अनुशासन की अपेक्षा न रखे। जिस तरह सीचा घोडा चावुक को देखते ही कुमार्ग को छोड़ देता है, वैसे ही विनीत गिप्य भी गुरुजनों की दृष्टि आदि का सकेत पाकर दुष्ट मार्ग को छोड़ दे।
ना पुट्ठो वागरे किंचि, पुट्ठो वा नालियं वए । कोहं असच्च कुवेज्जा, धारेज्जा पियमप्पियं ॥३२॥
[उत्त० अ० १, गा० १४] विनीत शिप्य विना पूछे कुछ भी न बोले और पूछे जाने पर असत्य न वोले। वह क्रोच को निष्फल वना दे और प्रिय-अप्रियको समभाव से ग्रहण करे।
न पक्खओ न पुरओ, नेव किच्चाण पिट्ठओ। न मुंज ऊरणा ऊरं, सयणे नो पडिस्सुण ॥३३॥
[उत्त० अ० १, गा० १८] विनीत शिप्य आचार्य की पंक्ति मे न बैठे, उनसे आगे भी न बैठे, उनके पीठ पीछे भी न बैठे और वह इतना निकट भी न बैठे कि उनकी जाँघ से जांघ मिल जाय। यदि गुरु ने किसी कार्य का आदेश दिया हो तो वह शय्या पर सोते-सोते अथवा बैठे-बैठे न सुने। तार्य यह कि खडा होकर तथा उनके पास जा कर विनय-पूर्वक सुने।