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विनय (गुरु-सेवा)
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हत्थं पायं च कायं च, पणिहाय जिइंदिए । अल्लीणगुत्तो निसीए, सगासे गुरुणो मुणी ॥३४॥
[दश० अ० ८, गा० ४५] जितेन्द्रिय मुनि गुरु के समक्ष हाथ, पैर और शरीर को यथावस्थित रखकर तथा अपनी चपल इन्द्रियो को वश मे रखकर ( बहुत दूर भी नही और पास भी नही इस प्रकार ) बैठे।
नीयं सिज्ज गइं ठाणं, नीयं च आसणाणि य । नीयं च पाए बंदिजा, नीयं कुजाय अंजलिं ॥३॥
[दश० अ० ६, उ० २, गा० १७ ] विनीत शिप्य अपनी शय्या, अपनी गति, अपना स्थान और अपना आसन गुरु से नीचा रखे, वह नीचा मुककर गुरु के चरणों की वन्दना करे और कार्य उपस्थित होने पर नीचे झुककर ही अजलि करे।
आसणे उवचिडेजा, अणुच्चे अकुए थिरे । अप्पुट्ठाई निरुहाई, निसीएज्जप्पकुकुए ॥३६॥
[उत्त० भ० १, गा० ३०] शिष्य ऐसे आसन पर बैठे कि जो गुरु से ऊंचा न हो, आवाज करनेवाला न हो और स्थिर हो। ऐसे आसन पर बैठने के पश्चात् वह बिना प्रयोजन उठे नही और यदि प्रयोजन हो तो भी बार-बार उठे नही । वह भोहे, हाथ अथवा पैरों से किसी प्रकार की चेप्टा किये बिना ही शान्ति से बैठे।