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विनय (गुर-सेवा)]
[२७७ मर्मभेदी ('दिल को बुरी लगे ऐसी ) बात न करे, मायावी वचनो का त्याग करे और जो वोले वह खूब सोच-समझ कर विचार पूर्वक बोले ।
निस्सन्ते सिया अमुहरी, बुद्धाणमन्तिए सया। अट्ठजुत्ताणि सिक्खिज्जा, निरहाणि उ बज्जए ॥२८॥
[उत्त० भ० १, गा०८] वह सदा शान्त रहे, असम्बद्ध बाते न करे, ज्ञानियो के निकट रहकर सदा अर्थयुक्त परमार्थसाधक बातो को ग्रहण करे और निरर्थक बातो को छोड दे। अणुसासियो न कुपिपज्जा, खंति सेवेज्ज पंडिए । खुड्डहि सह संसग्गि, हासं कीडं च वज्जए ॥२६॥
[उत्त० अ० १, गा०६] गुरु के अनुशासन करने पर क्रोध न करे अपितु क्षमावान् बना रहे और दुराचारियो की सगति, हास्य तथा क्रीडा का वर्जन करे। मा य चण्डालियं कासी, बहुयं मा य आलवे । कालेण य अहिज्जित्ता, तओ झाइज्ज एगगो ॥३०॥
[उत्त० अ० १, गा० १०] वह क्रोधादि के वशीभूत हो असत्य न बोले, साथ ही अधिक भी न बोले, किन्तु कालानुसार शास्त्रो का अध्ययन करे और एकाग्न होकर उन पर चिन्तन-मनन किया करे।
मा गलियस्सेव कसं, वयणमिच्छे पुणो पुणो । कसं व दमाइण्णे, पावगं परिवज्जए ॥३१॥
[उत्त० भ० १, गा००]